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शाब्दिक बहस में न जाकर यदि वस्त्विक्ताके धरातल पर हम आकलन करें तो ये बात सही होने पर भी की हिन्दू शब्द भी हमें आक्रान्ताओं ने ही दिया, हिन्दू और सनातनी एक दूसरे के पर्यायवाची बन गए,जो सनातन धर्म को मानने वाले , सिन्धु नदी के किनारे बसे, प्रकिर्ति पूजक, मूर्ती , अमूर्तिपूजक, सभ्यता के लोग , जिन्हें विदेशी आक्रान्ताओं ने हिन्दू कहा , मूलरूप से सनातनी ही हैं ,
एक ऐसी सनातन परंपरा और सिन्धु घाटी के गौरवशाली इतिहास के ध्वजवाहक लोगों को विदेशी आक्रान्ताओं ने हिन्दू कहा.
वर्तमान में हिन्दू और सनातनी एक दूसरेके पर्यायवाची हो गए ,
आप लाख कहें की हिन्दू एक देश है और सारे हिन्दुस्तानी हिन्दू कोई मानने को तैयार नहीं होगा .
क्यूंकि वर्तमान में हिदू मतलब सनातनी ये ही सार्वभोमिक सच है.
भूतकाल में पाकिस्तान और बंगलादेश भी नहीं थे , तो क्या आज भी नहीं हैं?
हाँ ये सत्य है की , जब कोई वास्तु पुरानी हो जाती है तो उसका जीर्णोधार जर्रोरी हो जाता है, इस सन्दर्भ में ये विषय साम्यायिक हो सकता है .
और हम केवल अतीत के गौरव को याद कर अपने आप को महँ कहते रहें , वर्तमान को न सुधारें तो हमसे बड़ा कोई मूर्ख न होगा .
हमें कम सेर कम इस बात पर गर्व है की आदरणीय वाजपई जी उसी परंपरा में जन्मे हैं , जहां अपनी कमियों पर तीखा प्रहार करने की , सार्थक बहस और शास्त्रार्थ की पूरी स्वतंत्रता है , निश्चित ही वाजपई जी के इस प्रहार के बाबजूद भी उनके सर पर ५१ लाख या करोड़ का इनाम घोषित होने वाला नहीं है 🙂
क्यूंकि ये वैदक परंपरा की ही म्हणता है जहाँ आप , मूर्ति पूजक हों , आर्य हों , सनातनी हों . शैव हों या वैष्णव , आस्तिक हों या नास्तिक , आपको अपनी बात रखने की परम्पराओं और उनकी खामियों को इंगित करने की पूर्ण स्वतंत्रता है.
और ये ही सिन्धु घाटी की सभ्यता या हिन्दू या सनातनी , या वैदिक परंपरा आप्कोप और हमको सबसे अलग पहिन्चान देती है ,
ये scientific भी है , क्यूंकि समय के साथ परिवर्तन एवं चयन ही श्रेष्ठ प्राणियों का चयन कर , survival of fittest , के सिधान्ता के अनुसार वर्तमान परिस्थियों में प्राणी प्रजाति के चयन का श्रेष्ठ मानक बनता है,
जहाँ तक एक विशेष वर्ग हिन्दू शब्द से अपने आप को दूर दिखने का प्रयास करता है , उस वर्ग के बारे में टिपण्णी करना बेकार है, सत्ता के लोभियों का धर्म से क्या वास्ता ?
{[हिंद’ , ‘हिंदुस्तान’ और इस क्षेत्र विशेष के निवासियों को स्वाभाविक रूप से ‘हिंदू’ कहा गया। हिंदू शब्द इस क्षेत्र की जीवन शैली को निरूपित करता था। धर्म से इसका कोई संबंध नहीं था। यानी आज धर्म के लिए प्रयुक्त होने वाले और कुछ लोगों को साम्प्रदायिक लगने वाला ‘हिंदू’ मूलत: और प्रकृत्या धर्म निरपेक्ष था।}
आदरणीय वाजपई जी अब हम क्या कहें आपकी स्वीकारोक्ति आपके लेख में स्वाम ही हो रही है .
{अंग्रेजों के पदापर्ण के बाद स्िथतियों ने तेजी से मोड लेना शुरू किया। सदमे में शिथिल पडी सनातनी धर्मधारा की पहचान मिटा देने के लिए मारक और शातिर चाल चली गयी। यह किया गोरों ने। 18वीं सदी के अंत में यूरोपीय ब्यापारियों और उपनिवेशवादियों ने भारतीय धर्मों को मानने वालों को सामूहिक रूप से हिंदू कहना शुरू किया। और फिर धीरे धीरे अवैदिक वैदिक भारतीय धर्म – बौद्ध, जैनादि इस शब्द परिधि के दायरे से पृथक होते गए। अंग्रेजी भाषा के शब्दकोषों में ‘हिंदुइज्म’ (हिंदुत्व) 19वीं सदी में शामिल किया गया बताया जाता है।}
हमें अपनी कमियों को दूसरे पर डालने की आदत सी पद गयी है.
हमारा अपना सबसे अधिक नुक्सान हमने ही किया.
हमारे समाज की अपनी कमियां, सामजिक बिघटन , जातीवाद ,और जातिवाद के नाम पर अश्प्रस्यता, समाज के बहुत बड़े तबके की समाज एवं सत्ता में उपेक्षा,सत्तालोलुपता,और जयचंदों के कारन न केवल मुग़लों , अपितु गोरों के भी हम अधीन रहे .
हमारी अस्मिता, संप्रभुता और सामाजिक व्यवस्था सभी का सालों साल चीर हरण हुआ.
गोरे जब हिन्दुस्तान में आये तब भी हमारी संस्कृति का शाशन नहीं था हिन्दुस्तान में, थे लास्ट emperor ऑफ़ इंडिया was बहादुर शाह ज़फर .
फिर हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ , और मजहब के नाम पर इसका बंटवारा भी हुआ , कहते हैं की लगभग दस लाख लोग इस बंटवारे की भेंट चढ़ गए , अंग्रेजों ने तो हमको मोका दिया था की , मूर्तिपूजक और मूर्ती विधान्सक दो प्रवृत्यां एक साथ शांति से नहीं रह सकतीं, लेकिन ये हमारी बची खुची महान सनातनी सोच ही थी की हमने धर्म के नाम पर बंटवारे के सिधांत को अस्वीकार कर . एक लोक तांत्रिक सर्व्धर्म्सम्पन्न भारत का मार्ग चुना . लोकतंत्र पकिस्तान में भी रहा लेकिन , इस्लामिक लोकतंत्र , और छुटपुट घटनाओं को छोड़ कर हमें आज भी अपने इस फैसले पर नाज़ है.:)
फिर गोरे आपके एहन से तो चले गए न आपको अपने हिसाब से अपनी व्यवस्था करने के लिए उन्होंने एक बहुत बड़े भूभाग को आपको सोंप दिया, और जाकर बैठ गए पाकिस्तान में , जहाँ वो आज भी बैठे हुए हैं ,क्यूंकि उनकी लड़ाई में हिन्दुस्तान तो एक पदो मात्र था , उनकी लड़ाई तो आज भी जारी है , और पता नहीं कब तक चलेगी .
६३ वर्ष के घटना कर्म में भारत का आज़ाद होना , उसका धार्मिक आधार पर बंटवारा, अंग्रेज का एहन से जाना, लेकिन पाकिस्तान में बैठे रहना,वोहीं से और लड़ाइयाँ लड़ना, अफगानिस्तान से लेकर इराक तक की महाविनाश्लिला, इरान को बार बार धमकाना , क्या ये किसी विशेष काल चक्र की और इंगित नहीं करते ???
सो मुनिवर , होही है सोई जो राम रची रखा………..
ये भारतीय परंपरा की ही महानता है की हम विश्व के दो नंबर के मुस्लिम देश होते हुए भी , , , लगभग प्रसन्नता के साथ रह कर ,लस्कर या ओसामा जैसे अतिवादियों के रबैये को challenge दे रहे हैं वरन सारी दुनियां को भी एक , रौशनी की एक नयी किरण भी दे रहे हैं,
अंग्रेज भी हमारे सामजिक सोहार्द के ढाँचे को समझने का प्रयास कर रहे हैं , ये ही हमारी परंपरा की विजय है
लेकिन बंटवारा नहीं रोक पाए हम ,!
तो ये कहना एक भूल होगी की इस मिटटी की खुशबू ही ऐसी है, जहां प्रेम और सोहार्द के पुष्प पनपते हैं , जहां राक्षश भी देवता तुल्य हो जाते हैं.ऐसा होता तो न बंटवारा होता न , तथाकथित धर्म के नाम पर लाखों निरीह लोगों (हिन्दु मुसलमान दोनों ही) की जानें ही जातीं , न अव्लाओं की अस्मत लुटती और न ही लाखों लोगों को दुबारा से अपना उजड़ा आशियाना बसने की मस्सक्कत करनी पड़ती , यदि एक इंसान मात्र के रूप में उन निरीह प्राणियों की कल्पना की जाए तो , अपने आप से भी शर्म आये हमें .
लेकिन ये धर्म ही है जो , धर्म के नाम पर अधर्म को भी मन्यता देता है और हमें एक संकुचित दायरे में बाँध कर निरीह , निर्दोष प्राणियों की हत्या और अपमान होते देख राक्ष्शी अट्टहास करने का अवसर भी देता है.
समझेगा अब कौन धर्म की ये नवरीत निराली
थुकेंगी हम पर अवश्य सन्ततियां आने वाली
🙂
पूरे विश्व में बमुश्किल ५% लोग ही अछि या बुरी ऐतिहासिक घटनाओं के कारन बनते हैं , हाँ खमियाजा १००% को भुगतना पड़ता है , आप आकलन करके देख लें , यदि मैंने गलत कहा हो तो अवश्य संशोधित करें.
तो उन ५% लोगों पर ही हमें नज़र रखनी है , और उन्ही को नहीं पनपने देना है.
सीमाओं पर चोकस नज़र के लिए तो आज हमारे पास विशाल सेना है , हमें हमला कर जीत लेना नामुमकिन है अब,
अपनी इस महान परंपरा को बचाए रखने के लिए ५% लोगों का समाधान अपने ही देश के भीतर , सजग होकर करना होगा हमें .
और इसके लिए सबसे अधिक जरूरी है , सामाजिक व्यवस्था में अपने सभी वर्गों का सम्मानजनक स्थान ,
सभी को पूरी से लेकर मान वैस्नोंदेवी,
या पहाड़ की गुफाओं , जहाँ जिसको अच्छा लगे , गाँव से लेकर शहर तक , आस्था के स्थानों में सम्मानजनक प्रवेश,जाती व्यवस्था उंच -नीच का समापन, और ये कार्य ब्राह्मणों के अतिरिक्त और कौन कर सकता है?
ब्रहमिन ही वरन व्यवस्था के दोषी हैं , फिर भी उनका सम्मान , आज भी हमारे समाज में सबसे अधिक है, ब्राह्मण वन्धुओं से प्रार्थना है की समाज सुधर की इस मुहीम को उच्चतम शिखर तक ले जाने के लिए , समाज का आह्वान करें, बाकी कार्य स्वतः ही हो जायेंगे .
धन्यबाद.
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